राजस्थान में वनस्पति या वन ( rajasthan ke van )
“किसी भी भौगोलिक प्रदेश या भू-भाग पर वनस्पति का वह आवरण जिसके उगने, फलने- फूलने तथा विकसित होने में मानव की कोई भूमिका नहीं होती, उसे प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं ।”
Geography of Rajasthan in Hindi ( Rajasthan ke Van Sampada )

राजस्थान में वन विस्तार – ( rajasthan ke van)
राजस्थान की प्राकृतिक संरचना इस प्रकार की है कि यहां भारत के अन्य राज्यों की तुलना में वनों का विस्तार अपेक्षाकृत कम है । राष्ट्रीय वन- नीति के अंतर्गत वनों का क्षेत्रफल के 33.33% होने की अपेक्षा की गई है , किंतु राजस्थान इस प्रतिशत से बहुत पीछे हैं । यहां मार्च 2019 में मात्र 9.55% क्षेत्र पर वनों का विस्तार है ।
राजस्थान राज्य में मार्च 2019 में 32701 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वनों का विस्तार था जो कुल क्षेत्रफल का मात्र 9.55% है और बहुत कम है ।
इसमें 12432.79 वर्ग किमी आरक्षित वन क्षेत्र है जो कुल वन क्षेत्र का 38.02% है ।
राजस्थान में सर्वाधिक वन क्षेत्र उदयपुर जिले में 4141.7 वर्ग किमी है । इसके पश्चात चित्तौड़गढ़ एवं करौली जिलों का स्थान है ।
सबसे कम वन क्षेत्र चुरू जिले में मात्र 71 वर्ग किमी (0.42%) है । जैसलमेर में 1.51 प्रतिशत, नागौर में 1.36% तथा जोधपुर में 1.06% क्षेत्र पर वन है ।
बाड़मेर ,बीकानेर, जोधपुर, टोंक, गंगानगर, हनुमानगढ़ ,जालौर तथा नागौर ऐसे जिले हैं जहाँ वनों का क्षेत्र 5% से कम है ।
वनस्पति (वन) को प्रभावित करने वाले कारक –
(1) धरातलीय स्वरूप
(2) ढाल की दशा
(3) समुद्र तल से ऊंचाई
(4) वर्षा
(5) सापेक्षिक आर्द्रता
(6) तापमान
(7) मिट्टी की दशा
(8) जैविक कारक
(9) जलवायु कारक
(10) प्राकृतिक कारक
प्रशासनिक दृष्टि से वनों के प्रकार –
राजस्थान में जलवायु एवं उच्चावच की क्षेत्रीय भिन्नता के कारण प्राकृतिक वनस्पति में भी भिन्नता पाई जाती है । प्रशासनिक दृष्टि से राजस्थान के वनों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जाता है ।
(1) आरक्षित वन –
ऐसे वनों पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होता है । वनों में लकड़ी काटना ,पशु चारण आदि पर प्रतिबंध होता है । वर्तमान में राज्य में 12432 .79 वर्ग किमी क्षेत्र पर आरक्षित वन है ।
(2) रक्षित वन –
ऐसे वनों में लकड़ी काटने, पशु चारण की सुविधा सीमित रूप से प्रदान की जाती है तथा इनको संरक्षित रखने का भी प्रयत्न किया जाता है । इस प्रकार के वनों का क्षेत्र 17490.73 वर्ग किमी है, जो कुल वन क्षेत्र का 53.48% है ।
(3) अवर्गीकृत वन –
इनमें शेष वन सम्मिलित होते हैं, जिन पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता है । इस प्रकार के वनों का विस्तार 2778.72 वर्ग किमी क्षेत्र पर है, जो कुल वन क्षेत्र का 8.50% है ।
भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के वनों के प्रकार –
(1) उत्तरी उष्णकटिबंधीय शुष्क पतझड़ वन –
ये वन लगभग 19227 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले हैं । यह मुख्य रूप से उदयपुर एवं बांसवाड़ा जिले में पाए जाते हैं ।
धोकड़ा वृक्ष इस प्रदेश का मुख्य वृक्ष है । इस वृक्ष की लकड़ी से कृषि के औजार बन जाते हैं ।
इन वनों में आम, तेंदू ,बबूल ,बरगद, गूलर ,खैर, नीम तथा अन्य वक्षों में बहेड़ा, धमन, खिरनी, सेमल, टिमरू है ।
ऊंची पहाड़ियों पर बाँस ,आँवला, ओक,थोर व करौंदा मुख्य है ।
खैर से कत्था, खिरनी से खिलौने तथा तेंदू से बीड़ी बनाई जाती है ।
(2) मिश्रित पतझड़ वन –
ऐसे वन उदयपुर ,कोटा, राजसमंद, बूँदी, चित्तौड़गढ़ और सिरोही के कुछ भागों में पाए जाते हैं ।
यहाँ सामान्य रूप से धोकड़ा ,बरगद ,गूलर, आम, जामुन, बबूल व खैर आदि प्रमुख वृक्ष है ।
इन वनों से प्राप्त लकड़ी का उपयोग इमारती लकड़ी के रूप में थोड़ा तथा इन ईधन व काठ, कोयला के लिए अधिक किया जाता है ।
(3) शुष्क सागवान वन –
ये वन राजस्थान के दक्षिणी भाग में 75 से 110 सेमी वर्षा वाले भागों में पाए जाते हैं । इन वनों को मानसूनी या चौड़ी पत्ती वाले वन भी कहते हैं ।
यहाँ पर देसी सागवान व अन्य चौड़ी पत्ती वाले वन पाए जाते हैं ।
इनका विस्तार मुख्यतः बाँसवाड़ा ,डूँगरपुर, कोटा बाराँ व झालावाड़ जिले में है ।
यहाँ पर बरगद, आम ,तेंदू ,साल सालर, गूलर, महुआ ,सरस ,खैर आदि के वृक्ष भी पाए जाते हैं ।
सागवान मुख्यत: डूँगरपुर एवं बाँसवाड़ा क्षेत्र में पाए जाते हैं ।
(4) उष्णकटिबंधीय कँटीले वन –
इस प्रकार के वन पश्चिमी राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में 25 से 50 सेमी औसत वर्षा वाले स्थानों पर पाए जाते हैं ।
इनमें काँटेदार वृक्ष एवं झाड़ियाँ प्रमुख होती है तथा इसे मरुस्थलीय वनस्पति के नाम से भी जाना जाता है ।
जैसलमेर ,बाड़मेर ,जोधपुर ,बीकानेर ,नागौर, चूरू ,सीकर ,झुंझुनू ,जालौर आदि जिलों में इस प्रकार की वनस्पति की प्रधानता होती है ।
अर्द्ध शुष्क भागों में खेजड़ा ,रोहिडा़, बेर, बबूल कैर आदि के वृक्ष मिलते हैं ।
खेजड़ा राज्य वृक्ष का दर्जा प्राप्त कर चुका है ।
(5) उपोष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन –
आबू पर्वत के चारों तरफ का लगभग 33 वर्ग किमी का क्षेत्र इन वनों के अंतर्गत आता है । इस क्षेत्र में वार्षिक वर्षा लगभग 150 सेमी है ।
पर्वत के ढ़लानों तथा तल के आस- पास पाए जाने वाले वृक्षों तथा झाड़ियों में बाँस, आम, धाऊ की कुछ प्रजातियों ,सिरिस, बेल ,जामुन तथा रोहिडा़ प्रमुख है ।
आबू के उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में अम्बरतरी पाई जाती है । यह क्षेत्र वनस्पति की दृष्टि से सर्वाधिक संपन्न है ।
वनों का आर्थिक महत्व या लाभ
वनों से दो प्रकार के लाभ हैं – (1) मुख्य उपजें (2) गौण उपजें
(1) मुख्य उपजें-
इमारती लकड़ी – राज्य में सागवान, धोकड़ा, सालर, शीशम, बबूल आदि की लकड़ी का उपयोग फर्नीचर बनाने एवं अन्य उपयोग में किया जाता है ।
जलाने की लकड़ी – खेजड़ी ,धोकड़ा, बबूल,कैर,कीकर,फोना आदि वृक्षों से जलाने तथा कोयला बनाने के काम आता है ।
(2) गौण उपजें –
(१) तेंदूपत्ता – इसका उपयोग बीड़ी बनाने हेतु किया जाता है । तेंदू के वृक्ष झालावाड़ ,कोटा ,बूंदी, उदयपुर ,चित्तौड़गढ़ में हैं । बीड़ी बनाने के प्रमुख केंद्र जयपुर, अजमेर ,कोटा, टोंक ,भीलवाड़ा, झालावाड़ ,पाली आदि है ।
(२) बाँस – इसका उपयोग टोकरी ,चारपाई ,झोपड़ी, कागज एवं फर्नीचर बनाने में किया जाता है । बाँसवाड़ा, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ ,सिरोही तथा भरतपुर जिलों में बाँस उपलब्ध है ।
(३)आँवल या झाबुई – अाँवल की झाड़ियाँ जोधपुर, पाली ,सिरोही ,उदयपुर और बाँसवाड़ा जिले में पाई जाती है । इसकी छाल चमड़ा साफ करने के लिए बहुत उत्तम है ।
(४) गोंद ,कत्था एवं लाख – गोंद अनेक वृक्षों जैसे खेजड़ा ,बबूल,ढाक, नीम ,पीपल आदि से प्राप्त किया जाता है ।
कत्थे का उत्पादन उदयपुर ,चित्तौड़गढ़ ,झालावाड़, बूंदी ,भरतपुर और जयपुर जिलों में किया जाता है ।
(५) घास ,खस, महुआ – राज्य में अन्य प्रकार की घास प्राकृतिक रूप से होती है जिनका उपयोग पशु चारे के अतिरिक्त रस्सी ,झाड़ू आदि बनाने में काम में लिया जाता है ।
खस भी एक प्रकार की घास है, जो सुगन्धित होती है ,इनका तेल निकाला जाता है तथा टाटियाँ बनाई जाती है ,जो कमरों को ठंडा रखने के काम आती है । यह भरतपुर ,सवाई माधोपुर और टोंक जिलों में विशेषकर उत्पादित होती है ।
महुआ डूँगरपुर, बाँसवाड़ा ,उदयपुर ,चित्तौड़गढ़ और झालावाड़ जिले में प्रचुरता से मिलता है । इस वृक्ष से प्राप्त फल का उपयोग तेल और शराब बनाने में किया जाता है । दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी भील इसका उपयोग अधिक करते हैं ।
(६) शहद व मोम – शहद की मक्खियों के छत्तों से शहद व मोम प्राप्त किया जाता है । अलवर, भरतपुर, सिरोही, जोधपुर ,उदयपुर ,चित्तौड़गढ़, और बाँसवाड़ा आदि जिलों में प्राप्त होता है ।
(७) औषधीय पौधे – वनों में अनेक प्रकार के औषधीय पौधे हैं जिनका उचित उपयोग आवश्यक है । बोटनीकल सर्वे ऑफ इंडिया के जोधपुर केंद्र ने इस प्रकार के 200 से अधिक पौधों का पता लगाया है ।
इनमें हरड़, बहेड़ा ,आँवला ,गूगल, नीम ,कडाया, चंदन ,अरंड, रतनजोत ,सफेद मुसली ,अश्वगंधा, शतावरी ,अमलताश, तुलसी, सर्पगंधा इत्यादि प्रमुख हैं ।
वन संरक्षण एवं संवर्धन –
राजस्थान निर्माण के समय कुल वन क्षेत्र 44100 वर्ग किमी था ,जो प्रदेश के कुल भूभाग का 13% था परंतु वर्तमान में वन क्षेत्र 9.56% ही रह गया है । जबकि राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार वन राज्य की कुल भूमि के 33% भाग पर होने चाहिए ।
राजस्थान में वानिकी विकास कार्यक्रम/ योजनाएँ
(1) मरुस्थल वृक्षारोपण कार्यक्रम (1978)
सन् 1978 से मरुस्थलीय जिलों में वृक्षारोपण में चारागाह विकास कार्यक्रम संचालित किए जा रहे हैं । इसके अंतर्गत मरुक्षेत्र के 10 जिले सम्मिलित हैं ।
(2) अरावली वृक्षारोपण कार्यक्रम (1992)
यह सन् 1992 में अरावली पर्वत श्रृंखला के उजड़ते वनों के पुनर्वास हेतु चलाई जा रही है । यह राजस्थान के 10 जिलों में चलाई जा रही है ।
इस योजना में समुद्र पारीय आर्थिक सहयोग निधि द्वारा जारी है । जापान की OECF कंपनी के सहयोग से चलाई जा रही है ।
(3) वानिकी विकास परियोजना –
यह प्रयोजना वर्ष 1995-96 से वर्ष 2002 तक के लिए जापान के OECF (वर्तमान में JBIC) के आर्थिक सहयोग से राज्य के 15 गैर मरुस्थलीय जिलों में प्रारंभ की गई थी ।
(4) इंदिरा गांधी नहर परियोजना –
यह परियोजना JBIC जापान के आर्थिक सहयोग से इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र में वृक्षारोपण एवं पौधे वितरण करने हेतु चलाई गई ।
(5) समन्वित ग्रामीण वनीकरण समृद्धि योजना –
भारत सरकार द्वारा वर्ष 2001-02 से इस योजना के तहत वानिकी विकास अधिकरण के माध्यम से वनारोपण कार्यक्रम हेतु डूंगरपुर, प्रतापगढ़, जयपुर, कोटा ,झालावाड़ ,बाराँ, करौली, बूंदी, बांसवाड़ा ,सीकर ,धौलपुर, पाली एवं उदयपुर वन मंडल के वन विकास अधिकरण की स्वीकृति प्रदान की गई है ।
(6) राजस्थान वानिकी एवं जैव विविधता परियोजना –
जापान द्वारा राजस्थान वन एवं जैव विविधता परियोजना के प्रथम चरण के लिए आर्थिक सहायता की गई । इस परियोजना के तहत 5 वर्षों में राजस्थान के 18 जिलों तथा इंदिरा गांधी नहर क्षेत्र की लगभग 1.24 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन संपदा तथा जैव विविधता विकसित की गई ।
इसमें 2 जंतु उद्यानों की स्थापना, 10 परिस्थितिकीय पर्यटन स्थलों का विकास एवं जल मृदा संरक्षण कार्यक्रम किए गए ।
(7) राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम –
केंद्र सरकार ने चार केंद्रीय प्रवृत्ति की योजनाओं – समन्वित वृक्षारोपण एवं पारिस्थितिकी विकास योजना(IAEP), ईधन व चारा योजना (AOFP), अकाष्ठ वनोपज संरक्षण एवं विकास योजना (NTFP) तथा परिभाषित वनों के पुनर्जीवीकरण में अनुसूचित जनजाति एवं ग्रामीण गरीबों को जोड़ने की योजना(STRP) को मिलाकर यह योजना प्रारंभ की गई ।
(8) मरू प्रसार रोकथाम कार्यक्रम –
वित्तीय वर्ष 1999- 2000 से भारत सरकार द्वारा राज्य के 10 मरुस्थलीय जिलों जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर ,जालौर ,पाली ,नागौर ,चूरू बीकानेर, झुंझुनू एवं सीकर में मरुस्थल विकास परियोजना के अंतर्गत विशेष परियोजना मरू प्रसार रोक परियोजना (CDP) स्वीकृत की गई ।
(9) नर्मदा नहर परियोजना –
इस परियोजना की स्वीकृति वर्ष 2006-07 से 2013-14 तक के लिए की गई है । इसका मुख्य उद्देश्य क्षेत्र में जलभराव के कारण भूमि को खराब होने से बचाने तथा नहर में मिट्टी के भराव को रोकने के लिए शेल्टरबेल्ट वृक्षारोपण करने तथा क्षेत्र के समग्र पर्यावरण में सुधार लाने के लिए नहर के समांतर भूमि में वृक्षारोपण करना है ।
(10) हरित राजस्थान योजना –
राजस्थान को हरा -भरा बनाने के लिए जन जन के सहयोग से वृक्षारोपण की महत्वकांक्षी पंचवर्षीय योजना (2009-14) ‘हरित राजस्थान’ जुलाई 2009 से प्रारंभ की गई । इस योजना को नरेगा के सहयोग से क्रियान्वित किया जा रहा है ।
(11) साँभर वेट-लैंड विकास कार्य –
प्रदेश की सबसे बड़ी खारे पानी की झील सांभर के आवाह क्षेत्र के उपचार के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं ।
(12) भाखड़ा व गंगनहर वृक्षारोपण –
यह कार्यक्रम 2010- 11 में प्रारंभ किया गया । इस कार्यक्रम के अंतर्गत भाखड़ा नहर के दोनों ओर वृक्षारोपण कराए जाने की स्वीकृति प्रदान की गई ।
(13) राष्ट्रीय बाँस मिशन कार्यक्रम –
यह योजना भारत सरकार के शत-प्रतिशत वित्तीय सहयोग से राज्य के उद्यान विभाग द्वारा क्रियान्वित की जा रही है । यह राज्य के 11 वन विकास अधिकरणों – बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, झालावाड़, करौली ,सवाई माधोपुर ,सिरोही ,उदयपुर, भीलवाड़ा ,प्रतापगढ़ एवं राजसमंद द्वारा निम्न चार प्रकार की गतिविधियां क्रिया में की जाती है ।
(1) सार्वजनिक क्षेत्र में केंद्रीय पौधशाला
(2) किसान पौधशाला
(3) किसान प्रशिक्षण
(4) क्षेत्र विस्तार
(14) वन नीति -2010
राज्य के वन एवं वन्य जीव संसाधनों के सतत प्रबंधन के लिए कैबिनेट ने राज्य की ‘वन नीति 2010’ को 17 फरवरी 2010 को मंजूरी दी ।
(15) औषधीय पौधों का विकास –
राज्य में औषधीय पौधों की खेती करके इनके उत्पादन के संग्रहण ,भंडारण एवं विपणन व पौधों के संधारण के संबंध में स्थानीय लोगों को जानकारी कराने के उद्देश्य से प्रदेश में औषधि उद्यानों की स्थापना की गई ।
(1) झालावाड़ जिले में ठंडी झीर सहित चार औषधीय उद्यान
(2) जयपुर जिले में झालाना डूँगरी
(3) उदयपुर जिले में नालसांडोल सहित दो औषधीय उद्यान
(4) डूँगरपुर जिले में नक्षत्र वन
(16) नई IND-Food for work परियोजना –
यह योजना 4 आदिवासी जिले उदयपुर, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर एवं चित्तौड़गढ़ में अतिरिक्त वानिकी विकास एवं जनहित कार्य कराने हेतु प्रारंभ की गई है ।
राजस्थान के वनों की पुरस्कार योजनाएँ –
(1) अमृता देवी स्मृति पुरस्कार (1994 )
(2) वानिकी लेखन एवं अनुसंधान पुरस्कार
(3) इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र पुरस्कार
(4) वानिकी पुरस्कार (1994)
(5) वानिकी पंडित पुरस्कार
(6) वृक्ष वर्धक पुरस्कार
(7) वन प्रहरी पुरस्कार
(8) वन पालक पुरस्कार
(9) वन विस्तारक पुरस्कार
(10) वन्यजीव सूचना पुरस्कार
(11) महा वृक्ष पुरस्कार (1995)
राजस्थान के वन मंडल – ( rajasthan ke van mandal )
नाम | जिले |
अजमेर मंडल | अजमेर |
उदयपुर मंडल | उदयपुर |
जोधपुर मंडल | श्री गंगानगर ,बीकानेर, चूरू ,नागौर, जैसलमेर ,बाड़मेर, जोधपुर ,पाली व जालौर |
जयपुर मंडल | सीकर, झुंझुनू, जयपुर और पश्चिमी सवाई माधोपुर |
कोटा मंडल | कोटा |
बूँदी मंडल | बूँदी |
झालावाड़ मंडल | झालावाड़ |
भरतपुर मंडल | अलवर ,भरतपुर, धौलपुर व पूर्वी सवाई माधोपुर |
टोंक मंडल | टोंक और उत्तरी पूर्वी भीलवाड़ा |
चित्तौड़ मंडल | चित्तौड़ व पश्चिमी भीलवाड़ा |
बाँसवाड़ा मंडल | बाँसवाड़ा ,डूँगरपुर और चित्तौड़गढ़ का दक्षिणी भाग |
सिरोही मंडल | सिरोही |
रियासत कालीन प्रमुख वन संरक्षण अधिनियम
(1) अजमेर फॉरेस्ट रेगुलेशन (1874)
(2) टोंक आखेट अधिनियम (1901)
(3) मेवाड़ आखेट अधिनियम (1941)
(4) बांसवाड़ा वन अधिनियम (1946)
(5) कोटा वन अधिनियम (1947)
महत्वपूर्ण तथ्य :-
(1) राष्ट्रीय वन नीति की घोषणा 1952 में की गई ।
(2) सन् 1910 में जोधपुर रियासत में वन संरक्षण की योजना बनाई गई थी ।
(3) सन् 1935 में अलवर रियासत में वन अधिनियम बनाया गया ।
(4) राजस्थान निर्माण के पश्चात 1953 में वन अधिनियम पारित किया गया ।
(5) राज्य का सर्वाधिक वन क्षेत्र वाला जिला उदयपुर है । उसके बाद चित्तौड़गढ़, बाराँ,करौली है ।
(6) राज्य का न्यूनतम वन क्षेत्र वाला जिला चूरु है तथा उसके बाद हनुमानगढ़ ,नागौर ,जोधपुर है ।
(7) पुष्कर में लीलासेवड़ी स्थित पंचकुंड नर्सरी में बायोलॉजिकल पार्क विकसित किया गया है ।
(8) जयपुर में नाहरगढ़ जैविक पार्क में वर्ल्ड क्लास जू बनाया गया है ।
(9) माचिस (जोधपुर) में बायोलॉजिकल पार्क विकसित किया गया है ।
(10) वर्ष 2009-10 से वनीकरण के कार्यों को नरेगा के अंतर्गत किया जाना प्रारम्भ किया गया है ।
(11) ढाक वृक्ष को ‘जंगल की ज्वाला’ के नाम से जाना जाता है ।
(12) झालाना वन क्षेत्र ,जयपुर को इको टूरिज्म पार्क के रूप में विकसित किया जा रहा है ।
(13) पाली जिले के सोजत शहर में पर्यावरण पार्क विकसित किया गया है ।
(14) झालाना वनखंड जयपुर में स्मृति वन बनाए गए हैं ।
(15) खेजड़ली में अमृता देवी का स्मारक बनाया गया है ।
(16) जैसलमेर के कुलधरा गांव में कैक्टस गार्डन विकसित किए गए हैं ।
(17) बाड़मेर जिले के चौहटन क्षेत्र अच्छे गोंद के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है ।
(18) राजस्थान में घास के मैदान या चरागाहों को स्थानीय भाषा में बीड़ कहा जाता है ।
(19) रोहिडा़ को मरुस्थल का सागवान या मारवाड़ का टीक नाम से प्रसिद्ध है ।
(20) शूष्क वन अनुसंधान संस्थान जोधपुर में स्थित है ।
(21) जैसलमेर के राष्ट्रीय मरू उद्यान को “आकल वुड फासिल्स पार्क” के नाम से जाना जाता है ।
(22) भारतीय धार्मिक ग्रंथों में राज्य वृक्ष खेजड़ी को शमी वृक्ष के नाम से जाना जाता है ।
(23) खेजड़ी को मरुस्थल या थार का कल्पवृक्ष भी कहा जाता है ।
(24) खेजड़ी का वानस्पतिक नाम प्रोसोपिस सिनेररिया है । इसे स्थानीय भाषा में जांटी भी कहा जाता है ।
(25) खेजड़ी वृक्ष “चिपको आंदोलन” का प्रेरणास्रोत रहा है ।
(26) विश्व का एकमात्र वृक्ष मेला खेजड़ली (जोधपुर) में भाद्रपद शुक्ल दशमी को लगता है ।
(27) प्रथम पंचवर्षीय योजना में कजरी(CAZRI) जोधपुर की स्थापना की गई ।
(28) राज्य में सर्वाधिक अवर्गीकृत वन बांसवाड़ा में है ।
(29) खैर के पेड़ से हांडी प्रणाली के द्वारा कत्था प्राप्त किया जाता है ।